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Tuesday, August 5

FLYING Sikh | मिल्खा सिंह की सच्ची कहानी

 



उड़न सिख: मिल्खा सिंह की सच्ची प्रेरणादायक कहानी

भूमिका

भारत में अगर किसी एथलीट ने करोड़ों युवाओं के दिलों में दौड़ने का सपना जगाया, तो वो थे मिल्खा सिंह
वो केवल एक खिलाड़ी नहीं, बल्कि संघर्ष और साहस की मिसाल थे।
एक ऐसा इंसान, जिसने बचपन में परिवार खोया, भूखा सोया, जेल भी गया — लेकिन कभी हार नहीं मानी।

आज भी जब भारत में कोई बच्चा दौड़ना शुरू करता है, तो उसका पहला सपना होता है — "मिल्खा सिंह जैसा बनना।"


बचपन: बंटवारे का दर्द और अकेलापन

मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर 1929 को गोविंदपुरा गाँव, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था।
वह एक सामान्य किसान परिवार से थे। गाँव की मिट्टी, खेत, और नदी के किनारे दौड़ लगाना ही उनका बचपन था।

लेकिन 1947 का भारत-पाकिस्तान विभाजन उनके जीवन पर ऐसा तूफान लेकर आया, जिसने सब कुछ बदल दिया।

बंटवारे की हिंसा में उन्होंने अपने माता-पिता, भाई-बहनों को अपनी आंखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा
उनके पिता की आखिरी बात थी:

“भाग मिल्खा, भाग!”

यह शब्द बाद में उनकी पूरी ज़िंदगी की दिशा बन गए।


 शरणार्थी बनकर भारत आना

मिल्खा सिंह किसी तरह जान बचाकर पंजाब के फिरोजपुर पहुँचे।
वहां से वह दिल्ली के शरणार्थी कैंप में रहे।
उनकी हालत दयनीय थी — न खाना, न कपड़ा, न ठिकाना।

उन्होंने रेलवे स्टेशन पर भीख माँगी, रोटियां चुराईं, और चोरी के आरोप में जेल भी गए।

एक समय वह इतने टूट चुके थे कि उन्होंने आत्महत्या का विचार तक कर लिया।
लेकिन तभी उनके बड़े भाई मक्खन सिंह ने उन्हें समझाया:

“ज़िंदगी को यूं बर्बाद मत कर, कुछ बन। ये दर्द ही तुझे ताकत देगा।”


सेना में भर्ती: उम्मीद की पहली किरण

मिल्खा सिंह ने भारतीय सेना में भर्ती के लिए प्रयास शुरू किया।
पहली तीन बार वह असफल हुए। लेकिन चौथी बार उन्होंने हार नहीं मानी और भर्ती हो गए।

यहीं से उनकी किस्मत ने नया मोड़ लिया।
सेना में एक इंटर-यूनिट एथलेटिक्स प्रतियोगिता हुई, जहाँ उन्होंने पहली बार दौड़ में भाग लिया — और जीत गए।

उनकी तेज़ रफ्तार देखकर अधिकारी भी हैरान रह गए।
फिर सेना ने उन्हें खेलों में प्रशिक्षण देने के लिए चुना।


संघर्ष से सफलता की दौड़

अब मिल्खा का असली प्रशिक्षण शुरू हुआ।
वह दिन में 100 किलोमीटर तक दौड़ते, अपने पैरों में लोहे के जूते पहनकर रेतीली ज़मीन पर अभ्यास करते।

उनका मानना था:

"अगर शरीर से खून नहीं निकले, तो वह मेहनत अधूरी है।"

उन्होंने अपने जीवन को सिर्फ एक ही लक्ष्य पर केंद्रित कर दिया —
दौड़ में देश के लिए पदक जीतना।


पहली जीत और कॉमनवेल्थ गेम्स

1958 में मिल्खा सिंह ने कॉमनवेल्थ गेम्स (कार्डिफ़, यूके) में 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीता।

यह भारत के लिए एथलेटिक्स में पहली बड़ी अंतरराष्ट्रीय जीत थी।

उसी साल, उन्होंने एशियाई खेलों (टोक्यो) में भी 200 और 400 मीटर दोनों में स्वर्ण पदक हासिल किए।

अब पूरा देश उन्हें पहचानने लगा। वे बन गए राष्ट्रीय हीरो


 1960 रोम ओलंपिक – सबसे बड़ा सपना

मिल्खा सिंह ने 1960 के रोम ओलंपिक में 400 मीटर दौड़ में भाग लिया।
पूरी दुनिया की निगाहें उस दौड़ पर थीं। उन्होंने फाइनल में पहुंचकर शानदार प्रदर्शन किया।

लेकिन अंत में वह केवल 0.1 सेकंड से चौथे स्थान पर रह गए।

उनकी हार से पूरा भारत निराश हुआ।
मिल्खा खुद भी टूट गए। उन्होंने कहा:

“वो मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल थी, जिसकी भरपाई मैं कभी नहीं कर सका।”

लेकिन उसी दौड़ में उन्होंने नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया — जो 40 सालों तक अटूट रहा।


 "उड़न सिख" की उपाधि

1960 में ही पाकिस्तान में एक इंटरनेशनल एथलेटिक्स मीट हुई, जहाँ मिल्खा सिंह को बुलाया गया।
पहले उन्होंने मना कर दिया क्योंकि पाकिस्तान की धरती पर उनके परिवार की यादें थीं।

लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वह गए।

वहाँ उनका मुकाबला हुआ पाकिस्तान के सबसे तेज धावक अब्दुल खालिक से — और मिल्खा ने उन्हें हरा दिया।

उस दिन पाकिस्तान के जनरल अयूब खान ने कहा:

"आप दौड़े नहीं, उड़ गए। आप तो Flying Sikh हैं!"

तभी से पूरी दुनिया ने उन्हें “उड़न सिख” कहना शुरू कर दिया।


आगे की उपलब्धियाँ

  • 1962 एशियाई खेलों में फिर से दो स्वर्ण पदक
  • कई इंटरनेशनल चैंपियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व।
  • राष्ट्रीय रिकॉर्ड और विश्व स्तर पर भारत की पहचान

 निजी जीवन और योगदान

मिल्खा सिंह ने पूर्व भारतीय वॉलीबॉल कप्तान निर्मल कौर से विवाह किया।
उनके चार बच्चे थे, जिनमें एक बेटा जीव मिल्खा सिंह, भारत के जाने-माने गोल्फर हैं।

खेलों से संन्यास के बाद मिल्खा सिंह चंडीगढ़ में खेल निदेशक बने और हजारों खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिया।

वो हमेशा कहते थे:

"मेरे पास दौलत नहीं, पदक हैं। और मैं चाहता हूं कि ये पदक देश के युवाओं को प्रेरित करें।”


 फिल्म – "भाग मिल्खा भाग"

2013 में उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्म "भाग मिल्खा भाग" रिलीज़ हुई, जिसमें फरहान अख्तर ने मुख्य भूमिका निभाई।
यह फिल्म भी सुपरहिट रही और करोड़ों लोगों को प्रेरणा दी।


 निधन

18 जून 2021 को मिल्खा सिंह का कोविड-19 से निधन हो गया।
उनकी पत्नी निर्मल कौर का निधन कुछ दिन पहले ही हुआ था।

उनके निधन पर पूरा देश रोया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा:

"हमने एक महान खिलाड़ी ही नहीं, एक प्रेरणा खो दी।"


 निष्कर्ष: जो दौड़ते हैं, वही ज़िंदा हैं

मिल्खा सिंह की कहानी बताती है कि जीवन में कितनी भी मुश्किलें आएं, अगर आपके इरादे मजबूत हैं तो कोई भी आपको रोक नहीं सकता।

उन्होंने शून्य से शुरुआत की और शिखर पर पहुंचे।

"मैंने ज़िंदगी से सिर्फ यही सीखा है — दौड़ते रहो, जब तक सांस चले।" – मिल्खा सिंह


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